आज ही के दिन यानि 13 अप्रेल सन 1986 के दिन भारत वर्ष में नवोदय विद्यालय की परिकल्पना साकार हुई ….जवाहर नवोदय विद्यालय के स्थापना दिवस की आप सभी नवोडियन्स को हार्दिक शुभकामनायें
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बात उन दिनों की है जब बरसात का मौसम लगभग जाने वाला था लेकिन नवोदय विद्यालय जुड्डा क जौहर नाहन का परिसर घाटी और घने जंगलों के बीच होने के कारण गहरे धुंध के आगोश में था यानि आसपास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था और शाम को छुट्टी के बाद अचानक जंगल के उबड़ खाबड़ रास्ते से पौडीवाला शिव मंदिर जाने का प्रोग्राम बन गया जो कि स्टाफ नर्स के रूप में विद्यालय में कार्यरत सरदार जी ने बनाया और न चाहते हुए भी मेँ स्वयं ,प्रशांत गायकवाड़ सर और अशोक सर भी तैयार हो गये ,और न नहीं करने की जन्मजात आदत ने हमें उस कोहरे भरी शाम को स्कूल से लगभग दो तीन किलोमीटर की की दूरी पर भगवान शंकर के दर्शन की उतरने पर मजबूर कर दिया ,सोचा जब चार लोग साथ हैं तो फिर क्या चिंता ,उस समय जंगल बहुत घना होता था और दयनीय जंगली रास्ते को बरसात ने और भी खराब कर दिया था , दरअसल स्टाफ नर्स सरदार जी को घूमने यानि वॉक करने का बहुत शौक था और वो भी साथ में कोई न कोई होना चाहिये क्योंकि घने जंगल में उस वक्त खतरा तो रहता ही था उपर से सरदार जी काफी मोटे थे उन्हें पेट कम करना था और उस दौरान हम चारों में सबसे पतला मेँ और प्रशांत सर ही थे अशोक सभी अच्छी हैल्थ के मालिक थे इसलिये अक्सर सरदार जी हमको साथ ले ज़ाते थे वे हमारे पिता जी की उम्र के ही थे इसलिये उनको मना भी नहीं कर पाये और शाम लगभग पांच बजे जल्दी जल्दी नीचे घाटी उतरते चले गये पहले भी शायद एक दी बार दिन के समय हम वहाँ जा चुके थे इसलिये उतरने में ज्यादा दिक्कत नहीं आयी लेकिन अशोक सर और सरदार जी काफी थक चुके थे इसलिये मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन के बाद वही बैठकर बातें करने लगे और पता ही नहीं चला कि अंधेरे और धुन्द ने पूरी घाटी को कब अपने आगोश में ले लिय़ा .लेकिन सरदार जी के साहस को देखकर हम भी उसी अंधेरे में अब ऊपर की और यानि स्कूल की और चल पड़े और कुछ ही मिंनट बाद घने अंधरे और धुंध के कारण हम उस पगडंडी पर चलने के बजाय जंगल में कहीं भटक गये और रास्ते की खोज में अंधेरे में घने जंगल में भटग गये , बीच बीच में सरदार जी चिल्लाकर कहते बच्चो रास्ता उत्थे है और कभी कहते इत्थे है ,इसी चक्कर में जंगल में ऊपर नीचे उतरते चढते हुए काफी देर हो गई ,घने कोहरे के कारण मंदिर की लाइट भी अब दिखनी बन्द हो गई ,अब समस्या ये थी कि अगर हम सीधे ऊपर की और चढते हैं तो रास्ता नहीं है इसलिये झाड़ियों में घुसना पड़ेगा और ऊपर से इस जंगल में जंगली सुंवर और अन्य जानवरों की भी भरमार रहती थी न जाने कहां पर जान खतरे में पड़ जाये वैसे भी अब बहुत थक चुके थे ,अशोक सर तो दो बार बेहोश भी हो चुके थे पानी भी हमारे पास नहीं था और ऊपर से सरदार जी का रास्ता खोजने का प्रयास भी कई बार असफल हो चुका था ,चारों में से झेवल में ही पहाड़ी पृष्टभूमि से था बाकि सभी पंजाब ,विहार और छतीसगढ़ से थे मुझे झाड़ियों में घुसने से ज्यादा दिक्कत नहीं हुई लेकिन कांटे य़ा कंटीली झाड़ियों के कारण हाथ पैर तो सभी के छिल गये थे ,लेकिन अंधेरे और डर के कारण यह घाव कुछ भी नहीं थे वो तो बाद में स्कूल पहूँचने पर कमरे में पता चला कि सारे कितने घायल हैँ और कांटों ने हमारी क्या दशा कर रखी है ,खैर अभी भी हम जंगल में भटक कर उपर नीचे गोते लगा रहे थे पानी प्यास भी लग रही थी लेकिन साहस अभी भी नहीं टूटा था ,खैर अब सबने फैसला किया कि सीधे उपर की ओर चलते है और लगभग दो किलोमीटर की चढाई ही होगी और फिर स्कूल के पीछे फायरिंग रेंज क मैदान मिल ही जायेगा ,सभी इसी उम्मीद के साथ घने जंगल में बिना रास्ते के कंटीली झाडियों के बीच घुसकर आखिरकार एक चट्टान के उपर पहूँच ही गये और आराम करने लग गये ,तभी इस चट्टान के नीचे बनी गहरी गुफा से कुछ आवाजें आनी शुरू हो गई और हम डर क्र मारे न तो उपर जा सकें और ना ही नीचे ,इस गुफा में शायद जंगली सूँवर के बच्चे थे और वे अपने बडों का यानि मां बाप का इंतजार कर रहे थे इसलिये अब खतरा यह था की अगर जंगली सुंवरों का झुंड अपनी गुफा की ओर आ गया तो वो हमें भी खा जायेंगे हम पर आक्रमण कर देंगे वैसे भी इस क्षेत्र में जंगली सूँवर कई बार लोगों को घायल कर चुके थे इसलिये हमारे पास उस घुप्प अंधरे में उपर की ओर भागने के अलावा कोई चारा नहीं था ,हिम्मत करके बिना आवाज किये एक दूसरे के हाथ पकड़ कर हम उपर की ओर बढ़ गये और तभी कुछ ही पल में सूँवरों के झुंड की खतरनाक आवाजें नीचे से आनी शुरू हो गई ,डर के मारे उपर की ओर चढते हुए हम सभी की सांसे तेज हो गई और भयंकर थकान और प्यास के कारण सभी उस घड़ी को कोसने लग गये जब मौसम के मिजाज को जानने समझने के बाद भी हम गलत फैसले के कारण अपनी जान को खतरे में डाल बैठे ,खैर जंगली सूँवरों की खतरनाक आवाजों ने हमें भागने पर मजबूर कर दिया लेकिन आखिरकार हम रात के साढ़े दस बजे स्कूल के पीछे मैदान तक पहूँच गये और थके हारे निढ़ाल होकर कुछ देर वहीं लेट गये और उमस भरी रात में चुपचाप स्कूल कैंम्पस में घुस गये और सिर्फ चौकीदार को ही पता चल सका कि हम जंगल में भटक गये थे ,अगले दिन सुबह स्कूल में अपनी गलती पर हम मुस्करा ही रहे थे तभी स्टाफ नर्स सरदार जी बीच में ठहाके लगाते हुए कहने लगे बच्चो आज शाम को कित्थे चलना है मैने कहा सर जी हमें माफ करें ,हमें सिर्फ और सिर्फ इत्थे ही रहणा है ,आज भी वहां जंगल घना है लेकिन लोगों की आवाजाही बढ़ गई है जंगल में भी अच्छे रास्ते पगडंडियां बन गई हैँ और रौनक भी बढ़ गई है लेकिन स्मृतियों से यह यादें जाती भी नहीं हैं और बार बार रोमांचित भी करती रहती हैं ……डॉ.श्रीकांत अकेला