- गजल
लूटा है हमको तो यहाॅं बस उनके प्यार ने
ये ज़िन्दगी वना दी है अब बोझ हार ने
जीना ये अपना अब नहीं जीना है रह गया
इक दर्द हमको है दिया अपने ही यार ने
ये दुश्मनी ही हमको इधर अब जो लाई है
जीते जी मार डाला है हमको तो खार ने
बंटे हुए थे दिल ये हमारे तो कब के ही
बांटा है घर भी बीच की यारो दिवार ने
जख्मों का बोझ तो नहीं संभलता हमसे अब
जीना भुलाया दर्द की हमको तो मार ने
मुश्किल घड़ी है अब तो कोई फैसला करो
छीना बहुत है हमसे तो जालिम बहार ने
कुछ तो मरा है आदमी अपने ही कर्जल
02..
गजल
यहाॅं अपनों को रुसवा क्यूॅं करें हम
कोई जीने का दावा क्यूॅं करें हम
हैं ओझल हम हुए तेरी नजर से
बता अब तेरा पीछा क्यूॅं करें हम
हरिक दिल पे है साया बेबसी का
मगर अब तुमसे शिकवा क्यूॅं करें हम
जरा सा अपने दिल में झांको अब तो
यूॅं नाहक तुमसे झगड़ा क्यूॅं करें हम
मिला है उतना किस्मत में था जितना
कोई उम्मीद ज्यादा क्यूॅं करें हम
जिये सपनों में सपनों में मरेंगे
हकीकत की तमन्ना क्यूॅं करें हम
नहीं जो रास आए अपनों को हम
तो फिर गैरों से वादा क्यूॅं करें हम
छुपी है दुनिया में चाहत किसी की
किसी पे अब भरोसा क्यूॅं करें हम
गमों में जीने की आदत है अपनी
ये दुख अपना हल्का क्यूॅं करें हम
03…
कमलताल
बारिश की नन्हीं बूंदे
बरसें जब कमल ताल में
जमती नहीं हैं पतों पर
नाचती हैं मोती बन कर
हलके हवा के झोंकों से
एक उम्मीद बंधती है
आसमान से टपकेंगी
चन्द रोज की साँसें
मन के किन्हीं कोनों में
जब तेरी मुलाकातों का
अहसास होने लगता है
फुहारों का दर्द सिमटता है
दिल की गहराईयों में
जीने की तमन्ना बसती है
गहन अंधेरी रातों में
याद तेरी सताती है
हवा का वो झोंका फिर
अवसर बन उभरता है
मन की बिखरी चाहत में
वीरानी सी छा जाती है
कमल सा यह मेरा मन
बिन पानी मुर्झाता है
आँखों से बहता हर आँसू
खोज में तेरी निकलता है
हल्का सा पानी में कंपन
बजूद मेरा हिलाता है
तेरे मन की पीड़ा तब
दर्द मेरा बन जाती है
रूठना यूँ चाहत का
रास नहीं है आता मुझको
तेरे लिये हर पल मैं
बेगाना सा हो जाता हूँ
तुम्हीं कहो क्या करूँ
समझाऊँ कैसे बेकल मन को
दूर दूर रह कर तुमसे
आस मिलन की छोड़ूँ कैसे
सड़ाँध ताल की अक्सर मेरे
नथुनों में भर जाती है
दो बूंँद पानी की खातिर
आसमान की ओर तकता हूँ
04.
गजल
हमको किसी ने दी है सजा इंतजार की
है पीर याद आ गई मुझको तो हार की
गर्दिश में थे सितारे यहाॅं मेरे जो मगर
है जीत अब तो हो गई उनके खुमार की
कहने को तो बहुत है मगर कैसे हम कहें
बच्चे बिगड़ते जा रहे गलती दुलार की
ये ऑंधियाॅं भी अब हमें देती उलाहने
आओ ये बात मान लें उजडी़ बहार की
रिश्ता हमारा टूटा है पूरी जो हो गयी
अवधी ये अब यहाॅं पे जो उनके करार की
दुश्मन जो हम हुए वो नहीं समझें दोस्ती
टूटी हदें ये सारी हैं आपस में खार की
रस्ते पे आ गये वो खुदा जो थे हो गये
यारो निकल गयी है हवा अब गुबार की
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र.